Thursday, May 1, 2008

बाप मरे अंधियारे, बेटा पॉवर हाऊस

बाप मरे अंधियारे, बेटा पॉवर हाऊस - बचपन में ये मुहावरा प्रायः सुनने को मिल जाता था परन्तु इसके अर्थ का ज्ञान न होते हुए भी सुनने में बहुत अच्छा लगता था, शायद इसके रोचक शब्दों के कारण। थोड़े बड़े होने पर इसका अर्थ भी समझ में आने लगा। जब कभी कोई बच्चा किसी वस्तु की मांग करता था जो की उस वक्त के हिसाब से थोडी बड़ी होती थी तो ये मुहावरा सुनने को मिल जाता था। वास्तव में इसका अर्थ होता है कि जिस वस्तु की बाप ने कल्पना भी नहीं की आज बच्चा उस वस्तु की मांग कर रहा है।

परन्तु ऐसा तो होता ही है। आज के वैज्ञानिक युग में प्रतिदिन एक से बढ़कर एक चीज़ें आ रही हैं और बच्चा उनको देखकर उसे पाने की अपेक्षा रखता है जिसकी उसके बाप ने कल्पना भी नहीं की थी।

अर्थ कुछ भी हो, आज भी ये मुहावरा सुनने में अच्छा लगता है :)

Thursday, April 10, 2008

आई ऍम इन लव

प्रेम के विविध प्रकार होते हैं परन्तु आज मैंने जिस प्रकार के प्रेम को चर्चा का विषय चुना है वो है वो है एक प्रेमी और प्रेमिका के बीच विवाह के पहले का प्रेम। आज कल इस प्रकार के प्रेम ने अपना जाल पूरी दुनिया पर फैला रखा है। जिसे देखो उसे प्रेम हो गया है। "आई ऍम इन लव" "आई लव यू" जैसे प्रसंग बहुत ही आम हो गए हैं।

परन्तु प्रेमी लोगो बहुत सारे दुखों का सामना करना पड़ता है। उदाहरण के तौर पर : किसी को इस बात का दुःख है कि उनके पास प्रेम करने को बस एक ही प्रेमी है तो कुछ लोग इस बात से चिंतित हैं कि उनका प्रेमी एक से अधिक लोगों से प्रेम करता है। कुछ लोग इस बात से दुखी हैं कि उनका प्रेमी उनको उतना नहीं चाहता जितना वो अपने प्रेमी को चाहते हैं और कुछ इस बात से नाराज हैं कि उनका प्रेमी बेवजह ही उनको इतना प्रेम करता ही। कोई इस बात से परेशान है की उसका प्रेमी उसे छोड़ कर जाता क्यों नहीं तो कुछ इस बात से दुखी हैं की उनका प्रेमी उन्हें छोड़ कर चला गया। किसी किसी वजह से अधिकांश प्रेमी दुखी ही हैं

ऐसे प्रेमी लोगों को देख कर बचपन में पढी गई सूरदास कि ये पंक्तियाँ याद आती हैं:

उद्धो मन भये दस बीस
एक हुतो गयो श्याम संघ को अवराधे ईश
आसा लागि रही तन स्वांसा, जीवहि कोटि बरीस

श्री कृष्ण के मथुरा चले जाने पर जब उद्धो गोपिकाओं को इश्वर में मन लगाने के लिए समझाने आते हैं तो गोपिकाएं उद्धो जी से कहती हैं कि: हे उद्धो! हमारे पास दस या बीस मन नहीं हैहमारे पास तो बस एक ही मन था जो श्री कृष्ण के साथ ही चला गया है, अब किस मन से इश्वर कि आराधना करेंये जो शरीर में साँस चल रही है बस ये ही जीना कि एक आशा है जिसके सहारे करोणों वर्षों तक जी सकते हैं अन्यथा श्री कृष्ण के पश्चात् जीवित रहना सम्भव नहीं था

श्री कृष्ण के चले जाने के पश्चात् भी श्री कृष्ण के प्रति गोपिकाओं के प्रेम में किसी प्रकार की कमी नहीं आती है। सच्चे प्रेम के ऐसे उदाहरण आज की दुनिया में मिलना अति दुर्लभ होता जा रहा है।
मुझे लगता था कि, प्रेम, दुनिया का सबसे सुंदर एहसास है परन्तु प्रेम के प्रति मेरा विचार बदलता जा रहा हैआज कल प्रेम का अर्थ केवल कुछ पल तक मन बहलाना हो कर रह गया है। अगर आज के युग में प्रेम ऐसे ही चलता रहा तो, शायद एक दिन प्रेम भी ये भूल जाएगा की प्रेम वास्तव में होता क्या है।

Wednesday, April 9, 2008

रस

रस: रस का शाब्दिक अर्थ है निचोड़। काव्य को पढने, देखने अथवा सुनने में जो आनंद प्राप्त होता है वो ही काव्य का रस होता है। रस के कारण ही काव्य का महत्व है।
श्रव्य काव्य के पाठन से अथवा श्रवण से तथा दृश्य काव्य के श्रवण से अथवा दर्शन से जिस आनंद की प्राप्ति होती है काव्य में उसे ही रस कहते हैं।
रस से जिस भाव की अनुभूति होती है उसे रस का स्थायी भाव कहते हैं।

रस के प्रकार:
वस्तुतः रस के ९ प्रकार होते हैं परन्तु कुछ ज्ञानीजन रस के दसवें प्रकार के होने की भी पुष्टि करते हैं।
  • श्रृंगार रस - स्थायी भाव -> रति
  • हास्य रस - स्थायी भाव -> हास
  • करुण रस - स्थायी भाव -> शोक
  • रौद्र रस - स्थायी भाव -> क्रोध
  • वीर रस - स्थायी भाव -> उत्साह
  • भयानक रस - स्थायी भाव -> भय
  • वीभत्स रस - स्थायी भाव -> घृणा, जुगुप्सा
  • अद्भुत रस - स्थायी भाव -> आश्चर्य
  • शांत रस - स्थायी भाव -> निर्वेद
दसवां रस जिसके होने की पुष्टि की जाती है:
  • वात्सल्य रस - स्थायी भाव -> वत्सल

Tuesday, April 8, 2008

नवरात्रों की यादें

नवरात्रों के आते ही याद आती है कुछ २० साल पुरानी बातें जो जवानी से मुझे बचपन की तरफ़ खींच कर ले जाती हैं और दिखाती हैं वो दृश्य जब शाम को स्कूल से आने के बाद मोहल्ले के सारे लड़के अच्छे अच्छे कपड़े पहने हुए अपनी अपनी साइकिल ले कर मेरे घर के बड़े दरवाज़े के सामने इकठ्ठा हो जाते थे। मन में "माँ" के दर्शनों की लालसा और सबके दिल में मन्दिर जाते हुए साइकिल के रेस की चाह होती थी। मन्दिर जाते हुए माँ से प्रसाद चढाने के लिए २ रुपये मिला करते थे जिसमे से कभी कभी १.५० रुपये का प्रसाद चढा कर ५० पैसे बचा लिया करते थे और उन ५० पैसों की इमली/टॉफी/आइसक्रीम खाया करते थे।

मन्दिर की ओर जाते हुए (साइकिल की रेस लगाते हुए) दूर से ही भक्ति गीत सुनाई देते थेनवरात्रों के समय मन्दिर में बड़ा लाउडस्पीकर लगा होता था और सुबह से ही भक्ति गीत बजने चालू हो जाते थे जो रात तक बजते रहते थे। ढेर सारी चमचमाती झालरों और बड़े बड़े फ्लश लाइटों से सारा मन्दिर जगमगाता रहता था। पास में ही एक तालाब था जिसमे सबसे पहले हाथ और पैर धोया करते थे और प्रसाद लेकर लम्बी सी कतार में खड़े हो जाते थे। कतार में खड़े होने के बाद गिनती शुरू होती थी की कितने आदमी हमारे आगे लगे हुए हैं। कभी कभी ये गिनती २०-२५ होती थी और कभी कभी (प्रायः अष्टमी के दिन) २००-२५० हुआ करती थी।

कतार में खड़े हुए सबके बीच साइकिल रेस वार्तालाप का गंभीर विषय रहता था की आज कौन जीता/अब तक कौन कितनी बार जीत चुका है/अब तक किसने सबसे तेज साइकिल चलाई। बात करते करते दर्शन का वक़्त आ जाता था और दर्शन करने के बाद सारे लोग थोड़ा प्रसाद खाते थे और थोड़ा घर पर बांटने के लिए बचा लेते थे।

नवरात्रों के समय मन्दिर में मेला लगा करता था जिसमे मनोरंजन के बहुत साधन होते थे जैसे बड़े बड़े झूले, अलग अलग करतब, गुब्बारे वाला, तोते से भविष्य बताने वाला, नाचने गाने वाले, बाइस्कोप से फोटो दिखाने वाला इत्यादी। खाने के लिए चाट, पूरी सब्जी, चना जोर गरम, समोसा, पकोडी और सबसे ज़्यादा बिक्री करने वाला होता था आइसक्रीम वाला।

दर्शन करने के बाद हम सभी लोग मेले में जाते थे और थोडी देर तक मौज मस्ती करते थे। बचे हुए ५० पैसों से कुछ खाते थे, कभी कभी झूला झूल लिया करते थे और कभी कभी गुब्बारे भी खरीद लिया करते थे।

माँ के शक्त निर्देश पर कि "शाम होने से पहले घर आ जाना" सभी लोग अँधेरा होने से पहले अपनी अपनी साइकिल ले कर और पुनः साइकिल कि रेस लगते हुए वापस घर को आ जाया करते थे।

Monday, April 7, 2008

अलंकार

अलंकार: जिस प्रकार आभूषण के धारण करने से स्त्री के बदन की शोभा बढ़ जाती है उसी प्रकार अलंकार के प्रयोग से वाक्य की शोभा बढ़ जाती है।
सूर्य पूर्व से उगता है, ये एक साधारण वाक्य है
सूर्य अपनी सहस्त्रों किरणें द्वारा सारे संसार को प्रकाशमान करने के लिए पूर्व दिशा से उदय होता है, इस वाक्य में पहले वाक्य की अपेक्षा ज़्यादा सुन्दरता है।

अलंकार प्रकार के होते हैं: --
  • अनुप्रास अलंकार: जब वाक्य में वर्णों की आवृति होती है तो वहां अनुप्रास अलंकार होता है।
उदाहरण: चारु चंद्र की चंचल किरणें, खेल रही थी जल-थल में(यहाँ "च" की आवृति हो रही है)
  • यमक अलंकार: जब किसी वाक्य में एक ही शब्द का प्रयोग एक से अधिक बार होता है और हर बार उसका अर्थ अलग अलग होता है तो वहाँ यमक अलंकार होता है।
उदाहरण:
ऊँचे घोर मन्दर के अन्दर रहन वारी, ऊँचे घोर मन्दर के अन्दर रहाती हैं। (यहाँ पर मन्दर के अर्थ हैं अट्टालिका और गुफा।)
तीन बेर खाती थी वो तीन बेर खाती थी (यहाँ बेर का अर्थ बार और बेर (फल) है।)
कनक-कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय, या खाये बौराय जग, वा पाये बौराय। (यहाँ पर कनक के अर्थ हैं धतूरा और सोना।)
  • श्लेष अलंकार: जब किसी शब्द का प्रयाग एक बार किया जाता है और उसके एक से अधिक अर्थ निकलते हैं तो वहाँ श्लेष अलंकार होता है।
उदाहरण:
रहिमन पानी राखिये,बिन पानी सब सून। पानी गये न ऊबरै, मोती मानुष चून।
यहाँ पानी का प्रयोग एक बार ही किया गया है, किन्तु उसके तीन अर्थ हैं - मोती के लिये पानी का अर्थ चमक, मनुष्य के लिये इज्जत (सम्मान) और चूने के लिये पानी है।
  • उपमा अलंकार: जब किसी वस्तु की तुलना किसी दूसरी समान गुण वाली वस्तु से की जाती है तो वहाँ उपमा अलंकार होता है।
उदाहरण:
राधा बदन चंद्र सो सुंदर (राधा के बदन की चंद्रमा से तुलना)
चरण कमल बन्दोऊ हरी राई (चरणों की तुलना कमल से)
  • अतिश्योक्ति अलंकार: जब किसी बात को बहुत बढ़ा चढा कर बताया जाता है तो वहाँ अतिश्योक्ति अलंकार होता है।
उदाहरण:
हनुमान की पूँछ में, लगन पायी आग।
सगरी लंका जर गई, गए निशाचर भाग।।
  • विभावान अलंकार: जहाँ कारण के न होते हुए भी कार्य का होना पाया जाता है वहाँ विभावान अलंकार होता है।
उदाहरण:
बिनु पग चलै सुनै बिनु काना।
कर बिनु कर्म करै विधि नाना।
तन बिनु परस नयन बिनु देखा।
गहे घ्राण बिनु बांस असेखा।

Friday, April 4, 2008

ये देश है वीर जवानों का

आज तक जितनी भी शादियों में मैं गया हूँ लगभग ७५% शादियों में मैंने ये गाना सुना है "ये देश है वीर जवानों का अलबेलों का मस्तानों का"। समझ में नहीं आता था की शादी में इस गाने के क्या औचित्य है। शादी में तो मस्ती वाले गाने होने चाहिए ये गाना क्यों। कई बार तो मैंने अपने दोस्तों से पूछा भी पर कोई सही सा उत्तर नहीं मिला।

जब छोटा था तो सोचता था की ऐसे ही गाते होंगे ये गाना। कोई गाना समझ में नहीं आया तो ये वाला ही गा लिया। पर जब अक्सर ये गाना सुना करता तो मुझे लगा कुछ तो गड़बड़ है।

आज भी मुझे इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिला है परन्तु आस पास के हालत को देख कर लगता है की शादी के बाद आदमी की दुर्गति/दुर्दशा होने वाली होती है इसलिए शादी पर ये गाना गा कर उसे इस बात का एहसास दिलाया जाता है की बेटा तुम देश के वीर जवान हो और तुम किसी भी परिस्थिति से मत घबराना। सारी परेशानियों का डट कर सामना करना।

अगर आपके कुछ अलग विचार हो तो कृपया अपने विचार प्रस्तुत कीजिये :)

Thursday, February 14, 2008

कितने अजीब रिश्ते हैं यहाँ पे

ना जाने क्यों जब भी ये गाना सुनता हूँ तो ये कहीं कहीं से दिल के तारों को छेड़ जाता हैआज शायद कुछ बीती बातें याद कर रहा था और सहसा इस गाने के बोल सुनाई दिएकाफ़ी देर तक सोचता रहा गाने के बोलों की सच्चाई को।


कितने अजीब रिश्ते हैं यहाँ पे...
दो पल मिलते हैं, साथ साथ चलते हैं
जब मोड़ आए तो बचके निकलते हैं
कितने अजीब रिश्ते हैं यहाँ पे...

यहाँ सभी अपने ही धुन में दीवाने हैं
करे वोही जो अपना दिल ठीक माने हैं
कौन किसको पूछें, कौन किसको बोले
सबके लबों पर अपने तराने हैं
ले जाए नसीब किसको कहाँ पे
कितने अजीब रिश्ते हैं यहाँ पे...

ख्वाबों की ये दुनिया है, ख्वाबों में ही रहना है
राहें ले जाए जहाँ, संग संग चलना है
वक्त ने हमेशा यहाँ नए खेल खेले
कुछ भी हो जाए यहाँ, बस खुश रहना है
मंजिल लगे करीब सबको यहाँ पे
कितने अजीब रिश्ते हैं यहाँ पे...


आज के युग में कितना सटीक लगते हैं इस गाने के बोल आज की दुनिया की ये ही सच्चाई है आज तक ना जाने कितने लोगों को दोस्त बनाया/समझा कुछ तो अपना मतलब सिद्ध करके चलते हुए और कुछ ने बिना किसी कारण के मुँह फेर लिया ज़िंदगी तो अपनी रफ़्तार से चलती ही रहेगी परन्तु उन मोड़ों कि यादें और कसक हमेशा इस दिल में रह जायेगी जिस मोड़ से वो बच के निकले थे।

Sunday, February 10, 2008

परिवार कि सुख

तनु निम्न मध्यम परिवार में पली बढ़ी और पढ़ने लिखने में उतीर्ण कन्या है। उसके पापा और चाचा एक साथ कपडे की दुकान करते हैं और माँ और चाची घर संभालती हैं। तनेश उसका २ साल छोटा चचेरा भाई है। तनेश भी पढ़ने लिखने में होशियार है। तनु के डाक्टरी में चयन हो जाने के कारण आज घर में छोटी सी पार्टी है और सब बहुत खुश हैं, विशेषकर उसकी चाची क्योंकि तनु की चाची तनु की बहुत अच्छी दोस्त भी है।
तनु अपनी पढाई के लिए जा रही है और सब स्टेशन पर उसे छोड़ने जाते हैं। परन्तु उसकी चाची नहीं जा रही क्योंकि वो तनु को जाते हुए नहीं देख सकती। तनु पढ़ने चली गयी और कुछ दिन बाद घर में सब कुछ पहले जैसा चलने लगा पर अभी भी तनु की कमी सबको महसूस होती है।
वक़्त बीता और तनेश का भी इंजीनियरिंग में चयन हो गया। परन्तु घर की आर्थिक स्थिथि को देखते हुए और तनु की पढाई में लगने वाले खर्चे को देखते हुए तनु के चाचा ने तनेश को आगे पढ़ने से मना कर दिया और दुकान में उनका हाथ बटाने को बोला, परन्तु तनेश अभी और पढना चाहता है। तनु की माँ को तनु के चाचा की बात पसंद नहीं आई और उन्होने तनु की पढाई को रोक कर तनेश के पढाई को शुरू करने की बात कही। तनु की चाची ने तनु के चाचा का पक्ष लिया और बोला दुकान पर २ की जगह अगर ३ लोग होने तो ज्यादा अच्छे से काम होगा इसलिए तनेश का दुकान पर काम करना ही ठीक है। बहुत कहने सुनने के बाद ये निर्णय हुआ की तनेश दुकान पर काम करेगा और उसकी पढाई रोक दी गयी क्योंकि तनु की चाची ने धमकी दे दी थी की अगर तनु की पढाई रोकी गयी तो वो घर से चली जाएगी।
इस सब बातों से बेखबर तनु ने डाक्टरी में हर साल अव्वल स्थान प्राप्त किया और २.५ साल के बाद वो घर आ रही है। सब उसे स्टेशन लेने गए और तनु अपने चाची को स्टेशन पर देख कर बहुत खुश हुई। २.५ साल बाद घर आने पर वो फूली नहीं समा रही थी परन्तु तनु की माँ ज्यादा खुश नहीं थी क्योंकि उसे पता था की जब तनु को तनेश की पढाई के बाए में पता लगेगा तो बहुत नाराज होगी। और ऐसा ही हुआ, जब तनु ने सुना की आर्थिक तंगी के कारण तनेश की पढाई रोक दी गयी है तो रो रो कर उसका बुरा हाल हो गया। तनु ने तुरंत अपनी पढाई छोड़ने का सोचा और अपनी चाची से बोली कि अब वो आगे नहीं पढना चाहती है। परन्तु उसकी चाची ने फिर घर से चले जाने कि बात कही। तनु समझ नहीं पा रही थी की वो अपनी चाची को क्या कहे। अपनी चाची से चिपट कर तनु रोती रही और रोते रोते सोचती रही कि ना जाने किन अच्छे कर्मो के कारण उसको ऐसी चाची मिली और ऐसा परिवार मिला जहाँ सब एक दुसरे कि ख़ुशी के लिए अपनी ख़ुशी छोड़ने पर तनिक भी विचार नहीं करते। शायद आज तनु के दिल कि हालत उससे बेहतर कोई नहीं समझ सकता था।

Friday, January 25, 2008

दोस्त दोस्त ना रहा

हमसफ़र तुझे समझा, तू रास्ते का पत्थर निकला,
दोस्ती वो क्या निभाएँगे, वो दुश्मन से भी बद्तर निकला।


कड़वी सच्चाई

ज़माने में नहीं होता कोई किसी का,
मिल भी जाए कोई तो उसका क्या भरोसा।

दोस्तों गलत ना समझना, ऐसा कुछ भी मेरे साथ नहीं हुआ है। बस बैठे बैठे उन लोगों का ख्याल आया जिनके साथ ऐसा हुआ है तो उन लोगों की तड़प को महसूस करते हुए ये तस्वीर और चार शब्द लिख दिए।
अगर किसी को अपनी आपबीती का ख्याल आया हो और दुःख पहुँचा हो तो क्षमा चाहता हूँ।

Wednesday, January 23, 2008

यादें .......

जब कभी गुजरा जमाना याद आता है,
बना मिटटी का अपना घर पुराना याद आता है।
वो पापा से चवन्नी रोज मिलती जेब खरचे को,
वो अम्मा से मिला एक आध-आना याद आता है।
वो छोटे भाई का लडना,वो जीजी से मिली झिङकी,
शाम को फिर भूल जाना याद आता है।
वो घर के सामने की अधखुली खिङकी अभी भी है,
वहाँ पर छिप कर किसी का मुस्कुराना याद आता है।
वो उसका रोज मिलना,न मिलना फिर कभी कहना
जरा सी बात पर हँसना हँसाना याद आता है।

Saturday, January 19, 2008

रक्षक या भक्षक

यद्यपि प्रायः इस प्रकार की घटनाएँ देखने को मिल जाया करती हैं परन्तु न जाने क्यों इस बार ये घटना ने मुझे लिखने पर प्रेरित कर दिया। शायद इस लिए कि अमेरिका में रहने के बाद मेरे सोचने का ढंग बदल गया है।

बात प्रातः ६:२५ कि पैसंजर ट्रेन की है। मैं बनारस जा रह था। सफर २ घंटे का था। मेरे अगले केबिन में वर्दी में ५ पुलिस (शायद ये ही सही शब्द है) वाले बैठे हुए थे और उनके साथ कोई हथकडी पहने बैठा हुआ था। ट्रेन स्टार्ट हुई तो एक अखबार वाला अखबार बेचने आया. तभी इन सज्जन लोगों को अखबार पढ़ने का मन किया और देखते ही देखते उस अखबार वाले से ४ अखबार ले लिए और पैसे मांगने पर बोला की "बनारस में आकर ये अखबार ले जान और बेच देना, हमारे पढ़ने से अखबार खराब तो हो नहीं जाएगा"। बेचारा अखाब वाला अपने मन में इस लोगों को कोसता हुआ चला गया।

थोडी और आगे जाने पर मूंगफली वाले को देखकर इन लोगों का मूंगफली खाने का मन हो आया। फिर क्या था देखते ही देखते ६-७ पैकेट मूंगफली के ले लिए गए और देखते हियो देखते मूंगफली चट। मूंगफली वाले की शकल से साफ प्रतीत हो रह था की वो पैसे माँगना चाहता परन्तु हिम्मत नहीं कर पा रहा था। बेचारा वो भी मन मसोस कर चला गया।

गाड़ी एक स्टेशन पर रुकी और सामने बढिया पकौड़ी चाय मिल रही थी। मुझे अनुमान लगते थोडी भी दे नहीं लगी की अब बेचारे पकौड़ी वाले की बारी है। और ऐसा ही हुआ। चार (कथित) पुलिस वाले पहुंच गए और देखते ही देखते ४०० ग्राम पकौड़ी (जिसकी कीमत लगभग २५ रूपए थी) लील गए (और मुझे ढकार भी सुनाई नहीं दी, ये अलग बात है)। परन्तु पकौड़ी वला कहाँ मानने वाला था। उसने तुरंत पैसे माँग लिए। पैसे मांगने पर उन न्याय के रक्षकों ने बोला की जो ट्रेन में साहब बैठे हैं उन से मांगो। जैसे ही बेचारा ट्रेन में बैठे साहब के पास आया तो उन्होने बोला "अन्दर आओ पैसे देता हूँ।" बेचारा अपने पैसे लेने ट्रेन की तरफ आने लगा। उसे क्या पता था की आज सुबह सुबह ही उसके गाल लाल होने वाले हैं। देखते ही देखते उन साहब ने २-४ तमाचे लगा दिए और बोला "इतने भी नहीं पता किससे पैसे लेने हैं और किस से नहीं।"

ये सब बातें और संभवतः इससे भी कहीं ज्यादा बातें साधारण तौर पर रोज ही देखने को मिल जाती हैं, परन्तु मुझे ये समझ में नहीं आ रहा था की अगर पुलिस वाले ऐसे हैं तो जो हथकडी पहने बैठा हुआ है उसको पकड़ने का अधिकार ऐसे लोगों को है क्या की जो खुद ही हथकडी पहन ने के लायक है।

न जाने ऐसे लोगों को क्या कहा जाए। कानून का रक्षक या भक्षक। या ऐसे लोगों को कहा जाए "वर्दी वाला गुंडा"।

View My Stats