Sunday, July 29, 2007

कुछ तमन्नाएँ ऐसी भी...

स्वतंत्रता की ६०वीं वर्षगांठ की तैयारियां प्रारम्भ हो गयी हैंबैठे बैठे ख़्याल आया उन अमर सेनानियों का, जिन्होंने भारत की आजादी को नयी दिशा प्रदान की, और उसी के साथ याद आयी ये कविता :

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ुए कातिल में है

करता नहीं क्यूँ दूसरा कुछ बातचीत,
देखता हूँ मैं जिसे वो चुप तेरी महफ़िल में है
ए शहीद-ए-मुल्क-ओ-मिल्लत मैं तेरे ऊपर निसार,
अब तेरी हिम्मत का चरचा गैर की महफ़िल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

वक्त आने दे बता देंगे तुझे ए आसमान,
हम अभी से क्या बतायें क्या हमारे दिल में है
खैंच कर लायी है सब को कत्ल होने की उम्मीद,
आशिकों का आज जमघट कूच-ए-कातिल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

है लिये हथियार दुशमन ताक में बैठा उधर,
और हम तैय्यार हैं सीना लिये अपना इधर.
खून से खेलेंगे होली गर वतन मुश्किल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

हाथ जिन में हो जुनून कटते नही तलवार से,
सर जो उठ जाते हैं वो झुकते नहीं ललकार से.
और भड़केगा जो शोला-सा हमारे दिल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

हम तो घर से निकले ही थे बाँधकर सर पे कफ़न,
जान हथेली पर लिये लो बढ चले हैं ये कदम.
जिन्दगी तो अपनी मेहमान मौत की महफ़िल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

यूँ खड़ा मौकतल में कातिल कह रहा है बार-बार,
क्या तमन्ना-ए-शहादत भी किसी के दिल में है.
दिल में तूफ़ानों कि टोली और नसों में इन्कलाब,
होश दुश्मन के उड़ा देंगे हमें रोको ना आज.
दूर रह पाये जो हमसे दम कहाँ मंज़िल में है,

वो जिस्म भी क्या जिस्म है जिसमें ना हो खून-ए-जुनून
तूफ़ानों से क्या लड़े जो कश्ती-ए-साहिल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ुए कातिल में है

--बिसमिल अज़ीमाबादी

राम प्रसाद बिस्मिल सौ जन्म इसलिये लेना चाहते थे क्योंकि वो चाहते थे कि सौ जन्म तक देश पर मर सकेंउन्ही के शब्दों में "एक बार देश के लिए मर जाऊं फिर आराम से जिऊंगा"।

Wednesday, July 25, 2007

मेरा अंतःकरण

सहसा मन की अभिलाषाओं को बल मिलता दिखाई देता है,
दूर दीवार के पीछे से कोई झांकता दिखाई देता है।

मुझे लगा मेरी मंजिल, मेरा सौभाग्य झाँक रह है,
पर पूछने पे पता लगा मेरा अंतःकरण मुझे ताक रह है।

समझने की बात है, जिन मंजिलों का मैं इंतज़ार करता रहा,
वो मेरे अन्दर ही थी पर अब तक मैं उन को पहचान ना सका।

Friday, July 20, 2007

माँ का चूल्हा

"बेटा खाना तैयार है, कर खा लो। "
"माँ आज भूख नहीं है, मैं खाना नहीं खाऊंगा।"
"
नहीं बेटा रात को बिना खाना खाए नहीं सोते हैंरात में बुढिया आकर पेट छू कर देखेगी और अगर तुम बिना खाना खाए सो जाओगे तो तुम्हारा सारा खाना खा जाएगी और सपने में डराएगीइस लिए थोडा ही सही, पर खा लो।"
माँ के लाख आग्रह करने के बाद भी विजय ने खाना नहीं खाया। माँ और क्या करती, वो थोडा बहुत खाना खा कर सो गयी। विजय बहुत खुश था की आज माँ की बात नहीं मानी और खाना नहीं खाया और अपनी बात माँ से मनवा ली। पर माँ की व्यथा माँ ही जानती है जब उसके बेटे को भूखा सोना पड़ता है (वो क्यों ना उसकी जिद्द ही हो)। बेटा भूखा हो और माँ को नींद आ जाए ऐसा कैसे हो सकता है। माँ का मन नहीं माना और वो फिर विजय के पास आकर बोलती है "बेटे कितने प्यार से मैंने तुम्हारे लिए खाना बनाया है, थोडा सा खा ले मेरे बेटे।" माँ फिर समझाती है "बेटे एक दिन ऐसा आएगा जब तुम कहीँ बाहर चले जाओगे तब तुम्हारी समझ में आएगा की मैं तुमसे खाना खाने के लिए बार बार क्यों बोलती हूँ।" "ये क्या रोज रोज रोटी बना देती हो माँ, मैं नहीं खाऊंगा।" विजय तो खुश था की उसकी जिद्द पूरी हो गयी और उसे माँ की रोटी नहीं खानी पडी। पर विजय बार बार ये ही सोचता रह की माँ ऐसा क्यों बोल रही है? क्या बाहर चले जाने पर मुझे खाना नहीं मिलेगा या माँ ये समझती है की मैं खुद से खाना बना नहीं सकता। विजय ने आख़िर माँ की बात नहीं मानी और ऐसे ही सो गया।
वक़्त ने करवट बदली और विजय को पढ़ाई के लिए बाहर जाना पड़ा। माँ ने डब्बे में पूरियां और सब्जी बाँध के दे दी और बोला "बेटे रास्ते में खा लेना, अगर कुछ बच जाए तो फेंकना नहीं, किसी गरीब को दे देना"।
विजय पढ़ाई के लिए पहली बार घर से बाहर निकला था तो उसके मन में बाहर रहने की थोड़ी ख़ुशी तो थी पर अपने अपनों से दूर रहने का दुःख भी हो रह था। विजय ने माँ का दिया हुआ खाना गाड़ी में खा लिया और बचा हुआ खाना ना जाने क्या सोच कर रख लिया।
कालेज का पहला दिन और विजय कालेज की मेस में खाना खाने पहुंच गया। खाना बहुत अच्छा बना हुआ था। बढिया पूरियां, दो तरह की सब्जी, खीर, मटर पुलाव। विजय बहुत खुश हुआ और खाना खाने ये सोच के बैठ गया की आज जम के खाऊंगा। पर ये क्या, विजय से तो एक पूरी भी नहीं खाई गयी। वो खाना खाते खाते बार बार कुछ सोचने लगता था।
शायद अब विजय की समझ में आ रहा था की माँ बार बार खाना खाने को क्यों बोलती थी। मेस में खाना तो बहुत अच्छा था पर माँ का प्यार जो खाने में मिला होता है उसका पूरी तरह से अभाव था। माँ के प्यार के बिना वो मेस का खाना विजय को जहर की तरह लग रहा था। तभी विजय को माँ के दिए हुए डब्बे के खाने की याद आयी और वो मेस का खाना छोड कर वो ही माँ के हाथों की बनी बांसी पूरियां और सब्जी खाने चला गया। खाना खाते खाते वो माँ की सारी बातों को याद करता रहा और आंखों से आंसू बहते रहे।
आज उसे एहसास हो रहा था की जब भी वो खाना फेंकता था तो माँ खाना फेंकने के लिए क्यों मन करती थी। उसे आज अपने आप पर बड़ी ख़ुशी हो रही थी की उसने माँ का वो खाना नहीं फेंका नहीं तो शायद उसे फिर से भूखा सोना पड़ता और आज भी माँ का मन दुःखी होता।

Thursday, July 12, 2007

सौभाग्य और दुर्भाग्य के बदलते रुप

बात दो दिन पुरानी है। दुर्भाग्यवश मेरा मोबाइल फ़ोन कहीँ खो गया था। जब मुझे एहसास हुआ कि मेरा मोबाइल मेरे पास नहीं है तो मेरा माथा ठनका और थोडा भी विलंब ना करते हुए और ये मनाते हुए कि किसी भले इन्सान ने मेरा मोबाइल लिया हो मैं अपने मोबाइल पे फ़ोन करने लगा। दो घंटे के अथक प्रयास के बाद उन सज्जन ने (जिन्होंने मेरा मोबाइल लिया था) मेरी कॉल ली और मेरे इस दुर्भाग्य पर अपना उल्लू सीधा करने कि सोची। महानुभाव ने मेरे मोबाइल को वापस करने के लिए मेरे सामने ५०$ का प्रस्ताव रखा। मेरा मोबाइल दो साल के अनुबंध में है जिसके पूरा ना होने पर मुझे १७५$ का दण्ड देना होगा। इस बात को विचार करते हुए मैंने उनको ५०$ देना स्वीकार कर लिया। पर मैं भी ठहरा बनिया ऐसे कैसे किसी को ५०$ दे दूं। कुछ भले लोगों कि सम्मति से मैंने पुलिस में रिपोर्ट कर दी।
अब बात बताता हूँ मोबाइल चोरी करने वाले सज्जन की बुद्धिमानी की। सज्जन को ये लगा कि मैं कोई डरपोक बालक होऊंगा और उनके पैसे मांगने पर मैं चुप चाप उनको पैसे दे के मोबाइल ले आऊंगा। ये सोचते हुए उन्होने मुझे अपने इलाक़े का पता और अपना नाम बडे प्रेम से बता दिया और बोला कि "४ बजे फिर से बात करना तब मैं वो जगह बताऊंगा जहाँ तुम्हे पैसे दे के मोबाइल लेना है।" ये सब सुन के मुझे इस बात का पूरा भरोसा हो गया कि ये सज्जन पहली बार मोबाइल कि फिरौती कि रकम माँग रहे हैं।
इस बीच मैंने पुलिस को ये बोल दिया कि मैं ४ बजे उससे मिलने का स्थान पूछ के बताता हूँ। अमेरिका कि पुलिस बड़ी कि सहायक होती है, इसलिये पुलिस ने मेरी बात मान ली और मुझ से ४ बजे मिलने को बोला।
पुनः ४ बजे मैंने उन महानुभाव को फ़ोन किया तो उन्होने मुझे एक जगह और वहाँ पहुँचने का रास्ता बता दिया। बस फिर क्या था, मैंने पुलिस वाले भाई साहब को अपने साथ लिया और पहुंच गया बताई हुई जगह पर। मैंने पुलिस वाले भाई साहब से बोला कि पहले मैं जाता हूँ और बात करता हूँ और थोड़ी देर बाद आप आ जाना।
जब मैं उन महानुभाव के पास पहुँचा और देखा कि वो अपने घर के बाहर ही खडे हैं तो मुझे उनकी इस बुद्धिमानी पे थोड़ी हंसी आयी परंतु जब मैंने ७ फ़ीट लम्बा ४० इंच चौड़ा आदमी देखा तो मेरे होश उड़ गए और सारी हंसी गायब हो गयी...... हिम्म्मत कर के मैं उनके पास पहुँचा और उन्होने सबसे पहले मुझ से फिरौती कि रकम कि माँग कि। मैंने बोला मुझ जैसे गरीब के पास ५०$ कहॉ से होंगे। पर वो अपनी बात से अडिग था। हमारे बीच वार्तालाप थोडा गरम हो ही रह था कि पुलिस वाले भाई साहब ने आकर स्थिती को संभाल लिया और उन महानुभाव को हथकड़ी लगा दी और मेरा मोबाइल मुझे वापस दिला दिया। बाद में पता चला कि उसे छोड दिया गया है और उनके ऊपर कुछ जुर्माना लगेगा। मैं बार बार ये ही सोचने पे विवश हो रह था कि वो मेरा दुर्भाग्य था कि मुझ से मोबाइल गिर गया था या उन महानुभाव का दुर्भाग्य था जो ५०$ का सपना देखते देखते कारागार जाते जाते बचे और जुर्माना दे बैठे...... जब मेरा दुर्भाग्य था (मोबाइल खोना) तब किसी का सौभाग्य था (५०$ मिलने की आशा) और जब मेरा दुर्भाग्य सौभाग्य में परिवर्तित हुआ (मोबाइल वापस मिला) तब उन्ही सज्जन का सौभाग्य दुर्भाग्य में परिवर्तित हो गया (जुर्माना देना पड़ा)।
दुर्भाग्य अथवा सौभाग्य किसी का भी हो ऊपर वाले कि अनुकम्पा से मुझे मेरा मोबाइल वापस मिल गया था और मेरे चहरे पर हंसी वापस आ गयी थी :-) ....

महान भ्रात्र प्रेम के उदाहरण

आदि काल से ये चर्चा का विषय रहा है कि "भरत" और "लक्ष्मण" में किस का भ्रात्र प्रेम महान है। एक ओर तो लक्ष्मण हैं जिनका भ्रात्र प्रेम सारी उपमाओं से परे है वहीँ दूसरी ओर भरत हैं जिन्होंने भ्रात्र प्रेम के लिए अयोध्या जैसा राज्य, राज वैभव सब कुछ त्याग दिया। "प्रेम कि असली शक्ति उसके निस्वार्थ होने में है और जब प्रेम निस्वार्थ होता है तो वो कुछ नहीं माँगता बल्कि प्रेमी को कुछ देना चाहता है। उसके सुख उसकी प्रसन्नता के लिए सब कुछ न्योछावर कर देना चाहता है।" भरत और लक्ष्मण दोनो ने भ्रात्र प्रेम के लिए सब कुछ छोड दिया।
आज भी इन दोनो का प्रेम वाद विवाद का महत्वपूर्ण विषय है।

"प्रेम निस्वार्थ होता है " अगर इस पर विचार किया जाये तो भरत का प्रेम लक्ष्मण से कहीँ महान है। लक्ष्मण भ्रात्र प्रेम के कारण अपने भाई से अलग नहीं रह सकते थे परंतु भरत ने भाई कि आज्ञा रखने के लिए भाई से अलग रहना भी स्वीकार कर लिया। दोनो ने ही राज वैभव का त्याग किया परंतु भरत ने नगर में रह कर भी तपस्वी जैसा वेश धारण किया जो अत्यंत दुष्कर है। भरत ने अयोध्या का राज्य को तिनके के समान तुच्छ समझकर अपने भाई के लिए उसका त्याग कर दिया जो उनके निस्वार्थ प्रेम को दर्शाता है।

"प्रेम निश्चल होता है" अगर इस वाक्य को माना जाये तो लक्ष्मण का प्रेम महान है। प्रेम में व्यक्ति को सब कुछ भूल के अपने प्रेमी के साथ ही रहना चाहिऐ। प्रेम सभी भावनाओं से परे है और अभी धर्म से भी ऊपर है। प्रेम के आगे कोई धर्म कोई भावना का कोई स्थान नहीं है।

"प्रेम कि असली परीक्षा वियोग में है"। भरत का प्रेम इस का एक उदाहरण है। भरत ने भाई प्रेम के वशीभूत अपने भाई से वियोग स्वीकार कर लिया परंतु लक्ष्मण अपने भाई से वियोग स्वीकार नहीं कर सके।

दोनो भाईयों का भ्रात्र प्रेम अपने अपने स्थान पे महान है और आज भी आदर्श भ्रात्र प्रेम का उदाहरण है।

गोस्वामी तुलसीदास, संक्षिप्त जीवनी

संवत पन्द्रह सौ चौवन  में (१५५४), जागा राजापुर का भाग,

हुलसी ने तुलसी को जाया, जो हिंदी का अमर सुहाग,

राम नाम बोला था, रामनाम जनमत तत्काल,

पिता आत्माराम देखकर बालक को, हो गए निहाल,

पर जब पाया मूल मन्त्र में, उपजा मन में कुछ आभास,

बालक सौंप दिया मुनिया को, मुनिया दीन्हा नरहरी दास,

पालित पोषित शिक्षित होकर, शेष सनातन से पा ज्ञान,

निज पत्नी रत्नावली से, पा राम का वैभव मान,

आज विश्व के अखिल रसिक जन, कर मानस (रामचरितमानस) में स्नान विलास,

मुक्त कंठ से कह उठते हैं, जय तुलसी, जय तुलसीदास

पाश्चात्य संस्कृति के बढते कदम

"सभ्यता जहाँ पहले आयी, जहाँ पहले जन्मी है कला
अपना भारत वो भारत है जिसके पीछे संसार चला
संसार चला और आगे बढ़ा, आगे बढ़ा बढ़ता ही गया"

आज जब मैं इन पंक्तियों को पढता हूँ और वर्त्तमान भारत कि छवि को देखता हूँ तो मुझे ये पंक्तियां निरर्थक सी जान पड़ती हैं. सभ्यता जहाँ पहले आयी तो पर सबसे पहले चली भी गयी. आज कल जिसे देखो वो पास्चात्य सभ्यता के पीछे भागते जा रह है और रुकने का नाम ही नहीं लेता. सारा संसार भारत के पीछे तो चला लेकिन जब आगे निकला तो इतना आगे निकला कि आज भारत वहाँ तक देख भी नहीं पाता है.

पास्चात्य सभ्यता के बढते कदम हर मोड़ पे दिख जाते हैं. मिसाल के तौर पे:

शहरों में रहने वाले स्त्री पुरुषों, बालक बालिकाओं के कपडे दिन पे दिन छोटे होते जा रहे हैं।
टीवी के कार्यक्रम हो या कोई चलचित्र सब में दो तीन शादी करना या शादी के बाद पर स्त्री संबंध रखना दिखाया जा रह है और सबको ये बडे पसंद आ रहा हैं।
किसी भी लडकी का किसी भी लड़के के साथ शारीरिक संबंध आम बात हो गयी है।
clubs, discos में अगर कोई नहीं जाता तो ये माना जाता है कि वो बहुत ही उत्साह हीन व्यक्ति है।

मैं ये नहीं कहता कि देश का विकास नहीं होना चाहिऐ, विकास जरूर होना चाहिऐ लेकिन अपने सभ्यता में रहकर और इस प्रकार से कि वो सारी दुनिया के लिए एक उदाहरण बन जाये। किसी कि संस्कृति/सभ्यता को चुरा के या नक़ल कर के विकास करने से क्या लाभ.

गुड मोर्निंग मुम्बई ........

जिन्दगी कि इस दौड़ में दौड़ के करना क्या है?
अगर यही जीना है दोस्तो तो फिर मरना क्या है?

पहली बारिश मे ट्रेन लेट होने कि फिक्र है,
भूल गए भीगते हुये टाहेलाना क्या है.

सिरिअल्स के किर्दारो का सारा हाल है मालूम
पर माँ का हाल पूछने कि फुरसत कहॉ है।

अब रेत पे नंगे पों टहलते क्यों नही?
१०८ है चैनल फिर दिल बहेलते क्यों नही?

कि दुनिया के तो touch मे है,
लेकिन पड़ोस मे कौन रहता है जानते तक नही।

मोबाइल, landline सब कि भरमार है,
लेकिन जिगरी दोस्त तक पहुचे ऐसे तार कहां है?

कब डूबते हुये सूरज को देखा था याद है?
कब जान था शाम का वोः बनना क्या है?

तो दोस्तो जिन्दगी कि इस दौड़ मे दौड़ के करना क्या है.
अगर यही जीना है तो फिर मरना क्या है?

-->> जानवी - लगे रहो मुन्ना भाई

कद्गमाला स्त्रोत्रम

श्री देवियाय नमः

लेखनी कि शुरुआत करता हूँ माँ कि आराधना से :

त्रिपुर सुंदरी, ह्रदय देवी, शिरो देवी, शिखा देवी, कवच देवी, नेत्र देवी, अस्त्र देवी, कामेश्वारी, भगमालिनी, नित्याक्लिन्ने, भेरुंडे, वन निवासिनी, महा वज्रेश्वारी, शिवदूती, त्वरिते, पुलसुंदरी, नित्ये, नीलपताके, विजये, सर्व्मंगाल्ये, ज्वाला मालिनी, चित्रे, महानित्ये, परमेश्वर परमेश्वरी, मित्रीसमयी, सश्तिसमयी, वुद्दिसमयी, चरनाथ्मयी, लोपमुद्रमयी, अगस्त्यमयी, कालतापनमयी, धर्मंचार्यामायी, मुक्त्केशी, स्वरामायी, दीपकलानाथमयी, विश्नुदेवमयी, प्रभाकर्देवमयी, तेजोदेवमयी, मनोजदेवमयी, कल्यानदेवमयी, रत्नदेवमयी, वासुदेवमयी, श्रीराहमहाआनंदमयी, अडिमासिद्धे, लघिमासिद्धे, मतिमासिद्धे, येसित्वासिद्धे, वसित्वासिद्धे, प्रकाम्यासिद्धे, भुक्तिसिद्धे, इच्छासिद्धे, प्राप्यासिद्धे, सर्वकामसिद्धे, रामहीमाहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, माहेन्द्री, चामुंडे, महालक्ष्मी, सर्व संक्शोभिनी, सर्व विद्य्राविनी, सर्वाकर्शिनी, सर्वावशंकरी, सर्वों मादिनी, सर्व महाकुशे, सर्व्केचरी, सर्व बीजे, सर्व्योने, सर्व्त्रिखंडे, त्रैलोक्यामोहना चक्रस्वामिनी, प्रकट योगिनी, कामा कर्शिनी, बुध्या कर्शिनी, अन्हाकारा कर्शिनी, शब्दा कर्शिनी, स्पर्शा कर्शिनी, रोपा कर्शिनी, रसा कर्शिनी, गंधा कर्शिनी, चित्ता कर्शिनी, दैव्या कर्शिनी, स्म्रित्या कर्शिनी, नामा कर्शिनी, बीजा कर्शिनी, आत्मा कर्शिनी, अमृता कर्शिनी, शरीरा कर्शिनी, सर्वाषा परिपूरक चक्र स्वामिनी, मुक्त योगिनी, अनंग कुसुमे, अनंग मेखले, अनंग मदने, अनंग मदनातुरे, अनंग रेखे, अनंग वेगिनी, अनंग आन्कुशे, अनंग मालिनी, सर्व सख्शोभना चक्रस्वमिनी, गुप्ततर योगिनी, सर्वसंक्शोभिनी, सर्वविद्राविनी, सर्वाकर्शिनी, सर्वाक्लादिनी, सर्वसम्मोहिनी, सर्वस्थाम्भिनी, सर्वझूम्बिनी, सर्ववशंकरी, सर्वरंजिनी, सवोंमादिनी, सर्वार्थसाधिनी, सर्वसम्पत्ति पूरनी, सर्व मंत्र मयी, सर्व द्वंद शयांकारी, सर्व सौभाग्य दायक चक्र स्वामिनी, सम्प्रदाया योगिनी, सर्व सिद्दी प्रदे, सर्व संपत प्रदे, सर्व प्रियाँकरी, सर्व मंगल कारिणी, सर्व काम प्रदे, सर्व दुःख विमोचिनी, सर्व मृत्यु प्रचामिनी, सर्व विघ्न निवारिनी, सर्वांग सुंदरी, सर्व सौभाग्य दायिनी, सर्वार्थ साधक चक्र स्वामिनी, पुलो तीर्ण योगिनी, सर्वग्ये, सर्व शक्ते, सर्वैईस्च्प्रदे, सर्व्ग्याग्यान्मये, सर्व व्याधि विनाशिनी, सर्वाधारस स्वरूपे, सर्व पाप हरे, सर्व अनंद्मायी, सर्व रक्षा स्वरुपिनी, सर्वे सिप्त प्रदे, सर्व रक्षा करे चक्र स्वामिनी, निगर्भ योगीनी, वसिनी, कामेश्वरी, मोदिनी, विमले, अरुने, जयदी, सर्वेश्वरी, कौलिनी, सर्व रोग हर चक्र स्वामिनी, रहस्य योगिनी, बाडिनी, चापिनी, पाचिनी, आन्कुशिनी, महाकामेश्वारी, महा वज्रेश्वारी, महा भग्मालिनी, महा श्री सुंदरी, सर्व सिद्दीप्रद चक्र स्वामिनी, अति रहस्य योगिनी, श्री श्री महा भात्तालीके, सर्व आनंद मया चक्र स्वामिनी, परापर रहस्य योगिनी, त्रिपुरे, त्रिपुरेशी, त्रिपुरसुन्दरी, त्रिपुर्वासिनी, त्रिपुराश्रीही, त्रिपुर्मालिनी, त्रिपुरासिद्धे, त्रिपुराम्बा, महा त्रिपुर सुंदरी, महा माहेश्वरी, महा महा राग्ये, महा महा शक्ते, महा महा गुप्ते, महा महा यप्ते, महा महा नंदे, महा महा स्पंदे, महा महा शये, महा महा श्री चक्र नगर साम्राग्नी

नमस्तुभ्यम नमस्तुभ्यम नमस्तुभ्यम नमो नमः

View My Stats