Friday, July 20, 2007

माँ का चूल्हा

"बेटा खाना तैयार है, कर खा लो। "
"माँ आज भूख नहीं है, मैं खाना नहीं खाऊंगा।"
"
नहीं बेटा रात को बिना खाना खाए नहीं सोते हैंरात में बुढिया आकर पेट छू कर देखेगी और अगर तुम बिना खाना खाए सो जाओगे तो तुम्हारा सारा खाना खा जाएगी और सपने में डराएगीइस लिए थोडा ही सही, पर खा लो।"
माँ के लाख आग्रह करने के बाद भी विजय ने खाना नहीं खाया। माँ और क्या करती, वो थोडा बहुत खाना खा कर सो गयी। विजय बहुत खुश था की आज माँ की बात नहीं मानी और खाना नहीं खाया और अपनी बात माँ से मनवा ली। पर माँ की व्यथा माँ ही जानती है जब उसके बेटे को भूखा सोना पड़ता है (वो क्यों ना उसकी जिद्द ही हो)। बेटा भूखा हो और माँ को नींद आ जाए ऐसा कैसे हो सकता है। माँ का मन नहीं माना और वो फिर विजय के पास आकर बोलती है "बेटे कितने प्यार से मैंने तुम्हारे लिए खाना बनाया है, थोडा सा खा ले मेरे बेटे।" माँ फिर समझाती है "बेटे एक दिन ऐसा आएगा जब तुम कहीँ बाहर चले जाओगे तब तुम्हारी समझ में आएगा की मैं तुमसे खाना खाने के लिए बार बार क्यों बोलती हूँ।" "ये क्या रोज रोज रोटी बना देती हो माँ, मैं नहीं खाऊंगा।" विजय तो खुश था की उसकी जिद्द पूरी हो गयी और उसे माँ की रोटी नहीं खानी पडी। पर विजय बार बार ये ही सोचता रह की माँ ऐसा क्यों बोल रही है? क्या बाहर चले जाने पर मुझे खाना नहीं मिलेगा या माँ ये समझती है की मैं खुद से खाना बना नहीं सकता। विजय ने आख़िर माँ की बात नहीं मानी और ऐसे ही सो गया।
वक़्त ने करवट बदली और विजय को पढ़ाई के लिए बाहर जाना पड़ा। माँ ने डब्बे में पूरियां और सब्जी बाँध के दे दी और बोला "बेटे रास्ते में खा लेना, अगर कुछ बच जाए तो फेंकना नहीं, किसी गरीब को दे देना"।
विजय पढ़ाई के लिए पहली बार घर से बाहर निकला था तो उसके मन में बाहर रहने की थोड़ी ख़ुशी तो थी पर अपने अपनों से दूर रहने का दुःख भी हो रह था। विजय ने माँ का दिया हुआ खाना गाड़ी में खा लिया और बचा हुआ खाना ना जाने क्या सोच कर रख लिया।
कालेज का पहला दिन और विजय कालेज की मेस में खाना खाने पहुंच गया। खाना बहुत अच्छा बना हुआ था। बढिया पूरियां, दो तरह की सब्जी, खीर, मटर पुलाव। विजय बहुत खुश हुआ और खाना खाने ये सोच के बैठ गया की आज जम के खाऊंगा। पर ये क्या, विजय से तो एक पूरी भी नहीं खाई गयी। वो खाना खाते खाते बार बार कुछ सोचने लगता था।
शायद अब विजय की समझ में आ रहा था की माँ बार बार खाना खाने को क्यों बोलती थी। मेस में खाना तो बहुत अच्छा था पर माँ का प्यार जो खाने में मिला होता है उसका पूरी तरह से अभाव था। माँ के प्यार के बिना वो मेस का खाना विजय को जहर की तरह लग रहा था। तभी विजय को माँ के दिए हुए डब्बे के खाने की याद आयी और वो मेस का खाना छोड कर वो ही माँ के हाथों की बनी बांसी पूरियां और सब्जी खाने चला गया। खाना खाते खाते वो माँ की सारी बातों को याद करता रहा और आंखों से आंसू बहते रहे।
आज उसे एहसास हो रहा था की जब भी वो खाना फेंकता था तो माँ खाना फेंकने के लिए क्यों मन करती थी। उसे आज अपने आप पर बड़ी ख़ुशी हो रही थी की उसने माँ का वो खाना नहीं फेंका नहीं तो शायद उसे फिर से भूखा सोना पड़ता और आज भी माँ का मन दुःखी होता।

1 comment:

मीनाक्षी said...

मन को छू लेने वाली सुन्दर अभिव्यक्ति .. माँ की याद आ गई.


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