जब कभी गुजरा जमाना याद आता है,
बना मिटटी का अपना घर पुराना याद आता है।
वो पापा से चवन्नी रोज मिलती जेब खरचे को,
वो अम्मा से मिला एक आध-आना याद आता है।
वो छोटे भाई का लडना,वो जीजी से मिली झिङकी,
शाम को फिर भूल जाना याद आता है।
वो घर के सामने की अधखुली खिङकी अभी भी है,
वहाँ पर छिप कर किसी का मुस्कुराना याद आता है।
वो उसका रोज मिलना,न मिलना फिर कभी कहना
जरा सी बात पर हँसना हँसाना याद आता है।
Wednesday, January 23, 2008
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1 comment:
विजय जी, जीते रहो,आबाद रहो, जहां भी रहो खुश रहो...लेकिन दोस्त अपनी जड़ों से हमेशा जुड़े रहो। आप की सहज भाव से लिखी कविता( कविता कह कर मैं कैसे उन पंक्तियों को छोटा महसूस कैसे होने दूं)...नहीं, आप के मन की तड़प जिसको आप ने सीधेसादे शब्दों में हमारे सामने रख डाला, बहुत अच्छी लगी। लिखते रहिए।
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