Friday, January 25, 2008

दोस्त दोस्त ना रहा

हमसफ़र तुझे समझा, तू रास्ते का पत्थर निकला,
दोस्ती वो क्या निभाएँगे, वो दुश्मन से भी बद्तर निकला।


कड़वी सच्चाई

ज़माने में नहीं होता कोई किसी का,
मिल भी जाए कोई तो उसका क्या भरोसा।

दोस्तों गलत ना समझना, ऐसा कुछ भी मेरे साथ नहीं हुआ है। बस बैठे बैठे उन लोगों का ख्याल आया जिनके साथ ऐसा हुआ है तो उन लोगों की तड़प को महसूस करते हुए ये तस्वीर और चार शब्द लिख दिए।
अगर किसी को अपनी आपबीती का ख्याल आया हो और दुःख पहुँचा हो तो क्षमा चाहता हूँ।

Wednesday, January 23, 2008

यादें .......

जब कभी गुजरा जमाना याद आता है,
बना मिटटी का अपना घर पुराना याद आता है।
वो पापा से चवन्नी रोज मिलती जेब खरचे को,
वो अम्मा से मिला एक आध-आना याद आता है।
वो छोटे भाई का लडना,वो जीजी से मिली झिङकी,
शाम को फिर भूल जाना याद आता है।
वो घर के सामने की अधखुली खिङकी अभी भी है,
वहाँ पर छिप कर किसी का मुस्कुराना याद आता है।
वो उसका रोज मिलना,न मिलना फिर कभी कहना
जरा सी बात पर हँसना हँसाना याद आता है।

Saturday, January 19, 2008

रक्षक या भक्षक

यद्यपि प्रायः इस प्रकार की घटनाएँ देखने को मिल जाया करती हैं परन्तु न जाने क्यों इस बार ये घटना ने मुझे लिखने पर प्रेरित कर दिया। शायद इस लिए कि अमेरिका में रहने के बाद मेरे सोचने का ढंग बदल गया है।

बात प्रातः ६:२५ कि पैसंजर ट्रेन की है। मैं बनारस जा रह था। सफर २ घंटे का था। मेरे अगले केबिन में वर्दी में ५ पुलिस (शायद ये ही सही शब्द है) वाले बैठे हुए थे और उनके साथ कोई हथकडी पहने बैठा हुआ था। ट्रेन स्टार्ट हुई तो एक अखबार वाला अखबार बेचने आया. तभी इन सज्जन लोगों को अखबार पढ़ने का मन किया और देखते ही देखते उस अखबार वाले से ४ अखबार ले लिए और पैसे मांगने पर बोला की "बनारस में आकर ये अखबार ले जान और बेच देना, हमारे पढ़ने से अखबार खराब तो हो नहीं जाएगा"। बेचारा अखाब वाला अपने मन में इस लोगों को कोसता हुआ चला गया।

थोडी और आगे जाने पर मूंगफली वाले को देखकर इन लोगों का मूंगफली खाने का मन हो आया। फिर क्या था देखते ही देखते ६-७ पैकेट मूंगफली के ले लिए गए और देखते हियो देखते मूंगफली चट। मूंगफली वाले की शकल से साफ प्रतीत हो रह था की वो पैसे माँगना चाहता परन्तु हिम्मत नहीं कर पा रहा था। बेचारा वो भी मन मसोस कर चला गया।

गाड़ी एक स्टेशन पर रुकी और सामने बढिया पकौड़ी चाय मिल रही थी। मुझे अनुमान लगते थोडी भी दे नहीं लगी की अब बेचारे पकौड़ी वाले की बारी है। और ऐसा ही हुआ। चार (कथित) पुलिस वाले पहुंच गए और देखते ही देखते ४०० ग्राम पकौड़ी (जिसकी कीमत लगभग २५ रूपए थी) लील गए (और मुझे ढकार भी सुनाई नहीं दी, ये अलग बात है)। परन्तु पकौड़ी वला कहाँ मानने वाला था। उसने तुरंत पैसे माँग लिए। पैसे मांगने पर उन न्याय के रक्षकों ने बोला की जो ट्रेन में साहब बैठे हैं उन से मांगो। जैसे ही बेचारा ट्रेन में बैठे साहब के पास आया तो उन्होने बोला "अन्दर आओ पैसे देता हूँ।" बेचारा अपने पैसे लेने ट्रेन की तरफ आने लगा। उसे क्या पता था की आज सुबह सुबह ही उसके गाल लाल होने वाले हैं। देखते ही देखते उन साहब ने २-४ तमाचे लगा दिए और बोला "इतने भी नहीं पता किससे पैसे लेने हैं और किस से नहीं।"

ये सब बातें और संभवतः इससे भी कहीं ज्यादा बातें साधारण तौर पर रोज ही देखने को मिल जाती हैं, परन्तु मुझे ये समझ में नहीं आ रहा था की अगर पुलिस वाले ऐसे हैं तो जो हथकडी पहने बैठा हुआ है उसको पकड़ने का अधिकार ऐसे लोगों को है क्या की जो खुद ही हथकडी पहन ने के लायक है।

न जाने ऐसे लोगों को क्या कहा जाए। कानून का रक्षक या भक्षक। या ऐसे लोगों को कहा जाए "वर्दी वाला गुंडा"।

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