बाप मरे अंधियारे, बेटा पॉवर हाऊस - बचपन में ये मुहावरा प्रायः सुनने को मिल जाता था परन्तु इसके अर्थ का ज्ञान न होते हुए भी सुनने में बहुत अच्छा लगता था, शायद इसके रोचक शब्दों के कारण। थोड़े बड़े होने पर इसका अर्थ भी समझ में आने लगा। जब कभी कोई बच्चा किसी वस्तु की मांग करता था जो की उस वक्त के हिसाब से थोडी बड़ी होती थी तो ये मुहावरा सुनने को मिल जाता था। वास्तव में इसका अर्थ होता है कि जिस वस्तु की बाप ने कल्पना भी नहीं की आज बच्चा उस वस्तु की मांग कर रहा है।
परन्तु ऐसा तो होता ही है। आज के वैज्ञानिक युग में प्रतिदिन एक से बढ़कर एक चीज़ें आ रही हैं और बच्चा उनको देखकर उसे पाने की अपेक्षा रखता है जिसकी उसके बाप ने कल्पना भी नहीं की थी।
अर्थ कुछ भी हो, आज भी ये मुहावरा सुनने में अच्छा लगता है :)
Thursday, May 1, 2008
Thursday, April 10, 2008
आई ऍम इन लव
प्रेम के विविध प्रकार होते हैं परन्तु आज मैंने जिस प्रकार के प्रेम को चर्चा का विषय चुना है वो है वो है एक प्रेमी और प्रेमिका के बीच विवाह के पहले का प्रेम। आज कल इस प्रकार के प्रेम ने अपना जाल पूरी दुनिया पर फैला रखा है। जिसे देखो उसे प्रेम हो गया है। "आई ऍम इन लव" "आई लव यू" जैसे प्रसंग बहुत ही आम हो गए हैं।
परन्तु प्रेमी लोगो बहुत सारे दुखों का सामना करना पड़ता है। उदाहरण के तौर पर : किसी को इस बात का दुःख है कि उनके पास प्रेम करने को बस एक ही प्रेमी है तो कुछ लोग इस बात से चिंतित हैं कि उनका प्रेमी एक से अधिक लोगों से प्रेम करता है। कुछ लोग इस बात से दुखी हैं कि उनका प्रेमी उनको उतना नहीं चाहता जितना वो अपने प्रेमी को चाहते हैं और कुछ इस बात से नाराज हैं कि उनका प्रेमी बेवजह ही उनको इतना प्रेम करता ही। कोई इस बात से परेशान है की उसका प्रेमी उसे छोड़ कर जाता क्यों नहीं तो कुछ इस बात से दुखी हैं की उनका प्रेमी उन्हें छोड़ कर चला गया। किसी न किसी वजह से अधिकांश प्रेमी दुखी ही हैं।
ऐसे प्रेमी लोगों को देख कर बचपन में पढी गई सूरदास कि ये पंक्तियाँ याद आती हैं:
उद्धो मन न भये दस बीस
एक हुतो गयो श्याम संघ को अवराधे ईश
आसा लागि रही तन स्वांसा, जीवहि कोटि बरीस
श्री कृष्ण के मथुरा चले जाने पर जब उद्धो गोपिकाओं को इश्वर में मन लगाने के लिए समझाने आते हैं तो गोपिकाएं उद्धो जी से कहती हैं कि: हे उद्धो! हमारे पास दस या बीस मन नहीं है। हमारे पास तो बस एक ही मन था जो श्री कृष्ण के साथ ही चला गया है, अब किस मन से इश्वर कि आराधना करें। ये जो शरीर में साँस चल रही है बस ये ही जीना कि एक आशा है जिसके सहारे करोणों वर्षों तक जी सकते हैं अन्यथा श्री कृष्ण के पश्चात् जीवित रहना सम्भव नहीं था।
श्री कृष्ण के चले जाने के पश्चात् भी श्री कृष्ण के प्रति गोपिकाओं के प्रेम में किसी प्रकार की कमी नहीं आती है। सच्चे प्रेम के ऐसे उदाहरण आज की दुनिया में मिलना अति दुर्लभ होता जा रहा है।
मुझे लगता था कि, प्रेम, दुनिया का सबसे सुंदर एहसास है परन्तु प्रेम के प्रति मेरा विचार बदलता जा रहा है। आज कल प्रेम का अर्थ केवल कुछ पल तक मन बहलाना हो कर रह गया है। अगर आज के युग में प्रेम ऐसे ही चलता रहा तो, शायद एक दिन प्रेम भी ये भूल जाएगा की प्रेम वास्तव में होता क्या है।
परन्तु प्रेमी लोगो बहुत सारे दुखों का सामना करना पड़ता है। उदाहरण के तौर पर : किसी को इस बात का दुःख है कि उनके पास प्रेम करने को बस एक ही प्रेमी है तो कुछ लोग इस बात से चिंतित हैं कि उनका प्रेमी एक से अधिक लोगों से प्रेम करता है। कुछ लोग इस बात से दुखी हैं कि उनका प्रेमी उनको उतना नहीं चाहता जितना वो अपने प्रेमी को चाहते हैं और कुछ इस बात से नाराज हैं कि उनका प्रेमी बेवजह ही उनको इतना प्रेम करता ही। कोई इस बात से परेशान है की उसका प्रेमी उसे छोड़ कर जाता क्यों नहीं तो कुछ इस बात से दुखी हैं की उनका प्रेमी उन्हें छोड़ कर चला गया। किसी न किसी वजह से अधिकांश प्रेमी दुखी ही हैं।
ऐसे प्रेमी लोगों को देख कर बचपन में पढी गई सूरदास कि ये पंक्तियाँ याद आती हैं:
उद्धो मन न भये दस बीस
एक हुतो गयो श्याम संघ को अवराधे ईश
आसा लागि रही तन स्वांसा, जीवहि कोटि बरीस
श्री कृष्ण के मथुरा चले जाने पर जब उद्धो गोपिकाओं को इश्वर में मन लगाने के लिए समझाने आते हैं तो गोपिकाएं उद्धो जी से कहती हैं कि: हे उद्धो! हमारे पास दस या बीस मन नहीं है। हमारे पास तो बस एक ही मन था जो श्री कृष्ण के साथ ही चला गया है, अब किस मन से इश्वर कि आराधना करें। ये जो शरीर में साँस चल रही है बस ये ही जीना कि एक आशा है जिसके सहारे करोणों वर्षों तक जी सकते हैं अन्यथा श्री कृष्ण के पश्चात् जीवित रहना सम्भव नहीं था।
श्री कृष्ण के चले जाने के पश्चात् भी श्री कृष्ण के प्रति गोपिकाओं के प्रेम में किसी प्रकार की कमी नहीं आती है। सच्चे प्रेम के ऐसे उदाहरण आज की दुनिया में मिलना अति दुर्लभ होता जा रहा है।
मुझे लगता था कि, प्रेम, दुनिया का सबसे सुंदर एहसास है परन्तु प्रेम के प्रति मेरा विचार बदलता जा रहा है। आज कल प्रेम का अर्थ केवल कुछ पल तक मन बहलाना हो कर रह गया है। अगर आज के युग में प्रेम ऐसे ही चलता रहा तो, शायद एक दिन प्रेम भी ये भूल जाएगा की प्रेम वास्तव में होता क्या है।
Wednesday, April 9, 2008
रस
रस: रस का शाब्दिक अर्थ है निचोड़। काव्य को पढने, देखने अथवा सुनने में जो आनंद प्राप्त होता है वो ही काव्य का रस होता है। रस के कारण ही काव्य का महत्व है।
श्रव्य काव्य के पाठन से अथवा श्रवण से तथा दृश्य काव्य के श्रवण से अथवा दर्शन से जिस आनंद की प्राप्ति होती है काव्य में उसे ही रस कहते हैं।
रस से जिस भाव की अनुभूति होती है उसे रस का स्थायी भाव कहते हैं।
रस के प्रकार:
वस्तुतः रस के ९ प्रकार होते हैं परन्तु कुछ ज्ञानीजन रस के दसवें प्रकार के होने की भी पुष्टि करते हैं।
श्रव्य काव्य के पाठन से अथवा श्रवण से तथा दृश्य काव्य के श्रवण से अथवा दर्शन से जिस आनंद की प्राप्ति होती है काव्य में उसे ही रस कहते हैं।
रस से जिस भाव की अनुभूति होती है उसे रस का स्थायी भाव कहते हैं।
रस के प्रकार:
वस्तुतः रस के ९ प्रकार होते हैं परन्तु कुछ ज्ञानीजन रस के दसवें प्रकार के होने की भी पुष्टि करते हैं।
- श्रृंगार रस - स्थायी भाव -> रति
- हास्य रस - स्थायी भाव -> हास
- करुण रस - स्थायी भाव -> शोक
- रौद्र रस - स्थायी भाव -> क्रोध
- वीर रस - स्थायी भाव -> उत्साह
- भयानक रस - स्थायी भाव -> भय
- वीभत्स रस - स्थायी भाव -> घृणा, जुगुप्सा
- अद्भुत रस - स्थायी भाव -> आश्चर्य
- शांत रस - स्थायी भाव -> निर्वेद
- वात्सल्य रस - स्थायी भाव -> वत्सल
Tuesday, April 8, 2008
नवरात्रों की यादें
नवरात्रों के आते ही याद आती है कुछ २० साल पुरानी बातें जो जवानी से मुझे बचपन की तरफ़ खींच कर ले जाती हैं और दिखाती हैं वो दृश्य जब शाम को स्कूल से आने के बाद मोहल्ले के सारे लड़के अच्छे अच्छे कपड़े पहने हुए अपनी अपनी साइकिल ले कर मेरे घर के बड़े दरवाज़े के सामने इकठ्ठा हो जाते थे। मन में "माँ" के दर्शनों की लालसा और सबके दिल में मन्दिर जाते हुए साइकिल के रेस की चाह होती थी। मन्दिर जाते हुए माँ से प्रसाद चढाने के लिए २ रुपये मिला करते थे जिसमे से कभी कभी १.५० रुपये का प्रसाद चढा कर ५० पैसे बचा लिया करते थे और उन ५० पैसों की इमली/टॉफी/आइसक्रीम खाया करते थे।
मन्दिर की ओर जाते हुए (साइकिल की रेस लगाते हुए) दूर से ही भक्ति गीत सुनाई देते थे। नवरात्रों के समय मन्दिर में बड़ा लाउडस्पीकर लगा होता था और सुबह से ही भक्ति गीत बजने चालू हो जाते थे जो रात तक बजते रहते थे। ढेर सारी चमचमाती झालरों और बड़े बड़े फ्लश लाइटों से सारा मन्दिर जगमगाता रहता था। पास में ही एक तालाब था जिसमे सबसे पहले हाथ और पैर धोया करते थे और प्रसाद लेकर लम्बी सी कतार में खड़े हो जाते थे। कतार में खड़े होने के बाद गिनती शुरू होती थी की कितने आदमी हमारे आगे लगे हुए हैं। कभी कभी ये गिनती २०-२५ होती थी और कभी कभी (प्रायः अष्टमी के दिन) २००-२५० हुआ करती थी।
कतार में खड़े हुए सबके बीच साइकिल रेस वार्तालाप का गंभीर विषय रहता था की आज कौन जीता/अब तक कौन कितनी बार जीत चुका है/अब तक किसने सबसे तेज साइकिल चलाई। बात करते करते दर्शन का वक़्त आ जाता था और दर्शन करने के बाद सारे लोग थोड़ा प्रसाद खाते थे और थोड़ा घर पर बांटने के लिए बचा लेते थे।
नवरात्रों के समय मन्दिर में मेला लगा करता था जिसमे मनोरंजन के बहुत साधन होते थे जैसे बड़े बड़े झूले, अलग अलग करतब, गुब्बारे वाला, तोते से भविष्य बताने वाला, नाचने गाने वाले, बाइस्कोप से फोटो दिखाने वाला इत्यादी। खाने के लिए चाट, पूरी सब्जी, चना जोर गरम, समोसा, पकोडी और सबसे ज़्यादा बिक्री करने वाला होता था आइसक्रीम वाला।
दर्शन करने के बाद हम सभी लोग मेले में जाते थे और थोडी देर तक मौज मस्ती करते थे। बचे हुए ५० पैसों से कुछ खाते थे, कभी कभी झूला झूल लिया करते थे और कभी कभी गुब्बारे भी खरीद लिया करते थे।
माँ के शक्त निर्देश पर कि "शाम होने से पहले घर आ जाना" सभी लोग अँधेरा होने से पहले अपनी अपनी साइकिल ले कर और पुनः साइकिल कि रेस लगते हुए वापस घर को आ जाया करते थे।
मन्दिर की ओर जाते हुए (साइकिल की रेस लगाते हुए) दूर से ही भक्ति गीत सुनाई देते थे। नवरात्रों के समय मन्दिर में बड़ा लाउडस्पीकर लगा होता था और सुबह से ही भक्ति गीत बजने चालू हो जाते थे जो रात तक बजते रहते थे। ढेर सारी चमचमाती झालरों और बड़े बड़े फ्लश लाइटों से सारा मन्दिर जगमगाता रहता था। पास में ही एक तालाब था जिसमे सबसे पहले हाथ और पैर धोया करते थे और प्रसाद लेकर लम्बी सी कतार में खड़े हो जाते थे। कतार में खड़े होने के बाद गिनती शुरू होती थी की कितने आदमी हमारे आगे लगे हुए हैं। कभी कभी ये गिनती २०-२५ होती थी और कभी कभी (प्रायः अष्टमी के दिन) २००-२५० हुआ करती थी।
कतार में खड़े हुए सबके बीच साइकिल रेस वार्तालाप का गंभीर विषय रहता था की आज कौन जीता/अब तक कौन कितनी बार जीत चुका है/अब तक किसने सबसे तेज साइकिल चलाई। बात करते करते दर्शन का वक़्त आ जाता था और दर्शन करने के बाद सारे लोग थोड़ा प्रसाद खाते थे और थोड़ा घर पर बांटने के लिए बचा लेते थे।
नवरात्रों के समय मन्दिर में मेला लगा करता था जिसमे मनोरंजन के बहुत साधन होते थे जैसे बड़े बड़े झूले, अलग अलग करतब, गुब्बारे वाला, तोते से भविष्य बताने वाला, नाचने गाने वाले, बाइस्कोप से फोटो दिखाने वाला इत्यादी। खाने के लिए चाट, पूरी सब्जी, चना जोर गरम, समोसा, पकोडी और सबसे ज़्यादा बिक्री करने वाला होता था आइसक्रीम वाला।
दर्शन करने के बाद हम सभी लोग मेले में जाते थे और थोडी देर तक मौज मस्ती करते थे। बचे हुए ५० पैसों से कुछ खाते थे, कभी कभी झूला झूल लिया करते थे और कभी कभी गुब्बारे भी खरीद लिया करते थे।
माँ के शक्त निर्देश पर कि "शाम होने से पहले घर आ जाना" सभी लोग अँधेरा होने से पहले अपनी अपनी साइकिल ले कर और पुनः साइकिल कि रेस लगते हुए वापस घर को आ जाया करते थे।
Monday, April 7, 2008
अलंकार
अलंकार: जिस प्रकार आभूषण के धारण करने से स्त्री के बदन की शोभा बढ़ जाती है उसी प्रकार अलंकार के प्रयोग से वाक्य की शोभा बढ़ जाती है।
सूर्य पूर्व से उगता है, ये एक साधारण वाक्य है
सूर्य अपनी सहस्त्रों किरणें द्वारा सारे संसार को प्रकाशमान करने के लिए पूर्व दिशा से उदय होता है, इस वाक्य में पहले वाक्य की अपेक्षा ज़्यादा सुन्दरता है।
अलंकार ६ प्रकार के होते हैं: --
सूर्य पूर्व से उगता है, ये एक साधारण वाक्य है
सूर्य अपनी सहस्त्रों किरणें द्वारा सारे संसार को प्रकाशमान करने के लिए पूर्व दिशा से उदय होता है, इस वाक्य में पहले वाक्य की अपेक्षा ज़्यादा सुन्दरता है।
अलंकार ६ प्रकार के होते हैं: --
- अनुप्रास अलंकार: जब वाक्य में वर्णों की आवृति होती है तो वहां अनुप्रास अलंकार होता है।
- यमक अलंकार: जब किसी वाक्य में एक ही शब्द का प्रयोग एक से अधिक बार होता है और हर बार उसका अर्थ अलग अलग होता है तो वहाँ यमक अलंकार होता है।
ऊँचे घोर मन्दर के अन्दर रहन वारी, ऊँचे घोर मन्दर के अन्दर रहाती हैं। (यहाँ पर मन्दर के अर्थ हैं अट्टालिका और गुफा।)
तीन बेर खाती थी वो तीन बेर खाती थी। (यहाँ बेर का अर्थ बार और बेर (फल) है।)
कनक-कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय, या खाये बौराय जग, वा पाये बौराय। (यहाँ पर कनक के अर्थ हैं धतूरा और सोना।)
- श्लेष अलंकार: जब किसी शब्द का प्रयाग एक बार किया जाता है और उसके एक से अधिक अर्थ निकलते हैं तो वहाँ श्लेष अलंकार होता है।
रहिमन पानी राखिये,बिन पानी सब सून। पानी गये न ऊबरै, मोती मानुष चून।
यहाँ पानी का प्रयोग एक बार ही किया गया है, किन्तु उसके तीन अर्थ हैं - मोती के लिये पानी का अर्थ चमक, मनुष्य के लिये इज्जत (सम्मान) और चूने के लिये पानी है।
- उपमा अलंकार: जब किसी वस्तु की तुलना किसी दूसरी समान गुण वाली वस्तु से की जाती है तो वहाँ उपमा अलंकार होता है।
राधा बदन चंद्र सो सुंदर। (राधा के बदन की चंद्रमा से तुलना)
चरण कमल बन्दोऊ हरी राई। (चरणों की तुलना कमल से)
- अतिश्योक्ति अलंकार: जब किसी बात को बहुत बढ़ा चढा कर बताया जाता है तो वहाँ अतिश्योक्ति अलंकार होता है।
हनुमान की पूँछ में, लगन न पायी आग।
सगरी लंका जर गई, गए निशाचर भाग।।
- विभावान अलंकार: जहाँ कारण के न होते हुए भी कार्य का होना पाया जाता है वहाँ विभावान अलंकार होता है।
बिनु पग चलै सुनै बिनु काना।
कर बिनु कर्म करै विधि नाना।
तन बिनु परस नयन बिनु देखा।
गहे घ्राण बिनु बांस असेखा।
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